समाधि रहस्य

मेरे विचार में समाधि का अर्थ है उस एक परमात्मा के समान हो जाना, उस के बराबर हो जाना। उपाधि का अर्थ है लगभग उस जैसा हो जाना, समझ लीजिए केवल एक पद नीचे। परंतु समाधि का अर्थ है पूर्ण रूप से ईश्वर के समान होना। उस दृष्टिकोण से, आप सही हैं कि समाधि एक ऐसी स्थिति है जिसमें आप अपने वास्तविक स्वरूप से परिचित हैं। परंतु केवल जानने और अनुभव करने में अंतर होता है। सुने-सुनाये ज्ञान से व्यक्ति समाधि के विषय में जानकारी अवश्य प्राप्त कर सकता है परंतु समाधि की वास्तविक स्थिति को पूर्ण रूप से समझने के लिए उसे स्वयं उस अवस्था में जाना होगा, उसे स्वयं अहसास करना होगा, समाधि का अनुभव करना होगा।

व्यक्ति परिस्थितियों एवं समाज से प्रभावित हो जाता है, इसी कारण समाधि की अवस्था की अनुभूति नहीं कर पाता है। यदि वह इस अनुभवातीत स्थिति की प्राप्ति कर ले तो उस के बाद उसे केवल स्वयं को प्रभावित ना होने की अवस्था में रखना है, तब समाधि की स्थिति बने रहेगी। इसके अतिरिक्त -अतुलनीय संवेदना एवं उत्तेजना शरीर से उभरेगी, विशेष रूप से आज्ञा चक्र और सहस्रार में।

उत्तेजना इतनी गहरी होगी कि आपको बाहरी कुछ भी दिलचस्प नहीं लगेगा, बाहरी दुनिया आपके आंतरिक स्थिति से अनभिज्ञ रह सकता है, परंतु उत्तेजना और अद्वितीय आनंद आप के भीतर बहता रहेगा।

जागृत अवस्था में आप लगातार ऐसी उत्तेजना महसूस करेंगे, यही समाधि की अवस्था है। यह मेरा व्यक्तिगत अनुभव है और जो भी प्रयत्न करने के लिए तैयार है वह भी अनुभव कर सकता है।

जिस प्रकार जल में लहर गठित हो सकता है परंतु बर्फ में नहीं, उसी प्रकार समाधि में आप बिना चंचलता के स्थायी रूप से परमानंद का अनुभव करते हैं।

क्रोध, वासना, घृणा और अन्य नकारात्मक भावनाएं आप के अंदर उभर ही नहीं सकतीं।

समाधि मात्र किसी उज्ज्वल चमक को देखना या क्षण-भंगुर ब्रह्मांड से संयोग महसूस करना नहीं है। ऐसे अनुभव का क्या लाभ? वह कैसे किसी को परिवर्तित कर सकता है? आधुनिक युग के कईं ग्रंथ आपको यह विश्वास दिलाते हैं कि ध्यान में बैठे रहो और एक दिन आपको अचानक समाधि प्राप्त हो जाएगी, यह सब निरर्थक बातें हैं। जिसे प्रमाणित नहीं किया जा सकता या फिर से दोहराया नहीं जा सकता उसे योगी कभी नहीं मानता। समाधि में आप पूर्ण चेतना का अहसास करते हैं। निश्चित रूप से, यह चेतना इतनी तीक्ष्ण होगी कि सामान्य स्थिति से बिलकुल अलग होगी।

फिर भी समाधि की अवस्था तथा उसमे होने वाले अनुभवों तथा उनसे प्राप्त समस्त सिद्धियों का मै विस्तार से वर्णन करूंगा।

जब साधक को शरीर का भी भान न रहे और परमात्मा का ज्ञान हो जाये ऐसी अवस्था में मन जहाँ जहाँ भी जाएगा वहीं वहीं समाधि है।

समाधि आपमें कहीं बाहर से नही आएगी, यह आपके अंदर ही घटित होगी। यह समायातीत है जिसे मोक्ष या निर्वाण भी कहा जा सकता है। बौद्ध धर्म में इसे निर्वाण तथा जैन धर्म में इसे कैवल्य कहा जाता है।
योग शास्त्रों में इसका नाम समाधि है।

मोक्ष की स्थिति में मन निष्क्रिय हो जाता है। समाधि ध्यान की सभी साधनाओं की पराकाष्ठा है, चर्म सीमा है। इसमे ध्यान सदा के लिए अंतर्मुखी हो जाता है, समाधि के लिए एक बौद्धिक और शांत दिमाग, स्पष्ट लक्ष्य, आलस्य विहीनता, सहजता, सरलता तथा सत्यता होनी चाहिए।

समाधि तब प्राप्त होती है जब साधक साधनाओं के सभी पड़ाव पार कर जाता है तथा उसका ध्यान एकचित्त अंतर में लगा रहता है।

इसको निम्नानुसार भी समझा जा सकता है-

जब साधक ध्यान करते करते ऐसी स्थिति में पहुँच जाता है जहां उसे खुद का ध्यान ही न रहे मात्र ध्येय ही शेष रह जाये तो ऐसी स्थिति को समाधि कहते हैं। इसमे ज्ञेय, ज्ञान तथा ज्ञाता का अंतर समाप्त हो जाता है।

साधक अणु परमाणुओं की संरचना के पार मुक्त साक्षी आत्मा रह जाता है।

यहाँ साधक परम स्थिर तथा परम जाग्रत हो जाता है।

जिस प्रकार यदि कोई नमक का टुकड़ा समुद्र में फेका जाये तो वह समुद्र की गहराई तक जाते जाते समुद्र में ही घुल जाता है तथा अपना अस्तित्व खो बैठता है, इसी प्रकार साधक भी समाधि के माध्यम से परम पिता परमेश्वर में समा जाता है।

अर्थात जो साधक अपनी इंद्रियों के बाह्य प्रवाह को रोक कर, भौतिक  वस्तुओं का मोह छोड़ कर, मन से अहंकार त्याग कर, आत्मा में लीन होकर समाधि को धारण करता है वे साधक संसार के बंधनो से मुक्त होकर, जन्म मरण से मुक्त होकर स्थायी मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।

किन्तु जो केवल आध्यात्मिक बाते तो करते है लेकिन जो ध्यान समाधि का अभ्यास नहीं करते वे कभी भी भौतिक बंधनो को तोड़कर मुक्ति नही पा सकते है।

समाधि का स्वरूप

समाधि की स्थित को प्राप्त करने वाला साधक रस, गंध, स्पर्श, शब्द, अंधकार, प्रकाश, जन्म, मरण, रूप आदि विषयों के परे हो जाता है। साधक गर्मी -सर्दी, भूख - प्यास, यश - अपयश, सुख-दुख आदि की अनुभूति से परे हो जाता है । ऐसा साधक जन्म मरण से मुक्त होकर अमरत्व को प्राप्त कर लेता है ।

समाधि में ध्याता भी नहीं रहता और ध्यान भी नहीं रहता है । ध्येय और ध्याता एकरूप हो जाते हैं । मन की चेतना समाप्त हो जाती है और मन ध्यान में निहित हो जाता है । प्रभु का ध्याता साधक प्रभु रूपी समुद्र में अपने आप को विसर्जित कर मुक्त पा लेता है । समाधि में शारीरिक एवं मानसिक चेतना का अभाव रहता है । आध्यात्मिक चेतना जाग्रत हो जाती है । साधक के वास्तविक स्वरूप का केवल अस्तित्व शेष रहता है । ऐसी अवस्था को तुरिया अवस्था कहते है जो परम चेतना की अवस्था है तथा अनिर्वचनीय है ।

कभी कभी साधक को अर्द्ध निंद्रा की स्थिति में ऐसा अनुभव भी हो सकता है जब साधक का मस्तिष्क जागृत अवस्था में हो लेकिन शरीर सोया हुआ हो । इसमे नींद के मुकाबले साधक को अधिक स्फूर्ति तथा आराम मिलता है । यह अवस्था लंबी साधना से ही संभव हो पाती है । कुछ लोग ऐसा मानते है कि समाधि पत्थर की तरह जड़ अवस्था है I जबकि साधक का ब्रह्मांडीय जीवन यहीं से शुरू होता है I आत्म-विकास शुरू होता है । साधक की कुंडलनी नाभि चक्र से जाग्रत होकर सुषमना के जरिये मस्तिष्क तक पहुँचती है जिससे सभी चक्र जाग्रत हो जाते हैं ।

आनन्दमय कोश में प्रवेश कर जाना भी समाधि की अवस्था कहलाता हैं । समाधि विभिन्न प्रकार की होती हैं। जैसे जड़- समाधि ( काष्ठ समाधि ), ध्यान समाधि, भाव समाधि, सहज समाधि, प्राण समाधि आदि । बेहोशी, नशा तथा क्लोरोफॉर्म इत्यादि सूंघने से प्राप्त समाधि को काष्ठ-समाधि कहा जाता हैं । किसी भावनावश भावनाओं में बहुत डूब जाने से शरीर चेष्टा शून्य हो जाना भाव समाधि है । किसी इष्ट देव आदि के ध्यान में इतना डूब जाए कि साधक को निराकार अद्भुत अदृश्य ताकते साक्षात दिखाई देने लगे, ऐसा प्रतीत होने लगे कि बंद आँखों से स्पष्ट प्रतिमा नज़र आ रही है इसे ध्यान समाधि कहते हैं । ब्रह्मरन्ध्र में प्राणों को एकाग्र करना प्राण-समाधि कहलाता है । साधक स्वयं को ब्रह्म में लीन होने जैसी अवस्था में बोध पाता है इसे ब्रह्म समाधि कहते हैं ।

सभी समाधियों में सबसे सहज, सुखकारी तथा सुलभ सहज समाधि है ।

असंख्य योग-साधनाओं में से सहज समाधि एक सर्वोत्त्म साधन है।इसका विशेष गुण यह है कि सांसारिक जीवन जीते हुए भी साधक का साधना अभ्यास चलता रहता है । साधक के जीवन से अहम भाव लगभग समाप्त हो जाता है । वह संसार का प्रत्येक कार्य प्रभु इच्छा मानकर करता रहता है । वह प्रभु के इस संसार को प्रभु की सुरम्य वाटिका के समान देखते हुए एक माली के समान कार्य करता है । संत कबीर जी भी उक्त पद में ऐसी ही समाधि की चर्चा कर रहे हैं और यह समाधि उन साधकों को ही प्राप्त हो सकती है जो मलिन वासनाओं को त्याग कर हर वक्त शब्द में लीन रहते हैं ।

समाधि का घटित होना

जब साधक किसी सद्गुरु की कृपा से साधना, ध्यान अभ्यास पूर्ण कर समाधि योग्य हो जाता है, बाहरी विचारों से मुक्त होकर अंतर्मुखी हो जाता है तथा वह अपनी आत्मा में ही लीन रहता है तो समाधि घटित होती है । जब साधक ध्यान में बैठता है तो कुछ समय पश्चात उसे एक मौन जैसी अवस्था प्राप्त होती है , यहाँ उसे बेचैनी और उदासी सी अनुभव होती है। यहाँ पर साधक को अपने विचारों पर अधिक ध्यान नही देना चाहिए।

विचार आ रहे है तो आने दो, जा रहे हैं तो जाने दो, बस दृष्टा बने रहो, एक पैनी नज़र के साथ यहाँ साधक को धैर्य बनाए रखना चाहिए। इस मौन और उदासी के बाद ही हृदय प्रकाश से भरने लगता है। ध्यान में शरीरी भाव खोने लगेगा लेकिन साधक को इससे डरना नहीं चाहिए बल्कि खुश होना चाहिए कि वह परमात्मा प्राप्ति के मार्ग की और अग्रसर हो रहा है। अब साधक को ब्रह्म भाव की अनुभूति होने लगेगी ।शरीर में विद्युत ऊर्जा का संचार होने लगेगा। इससे कभी कभी साधक के सिर में दर्द हो सकता है और यह बहुत ज्यादा भी हो सकता है। पीड़ा या दर्द यदि अधिक बढ़े तो चिंता नहीं करना चाहिए क्योंकि जब चक्र टूटते है तो पीड़ा होती ही है क्योंकि चक्र आदि काल से सोये पड़े हैं। अत: इस पीड़ा को शुभ मानना चाहिए, साधक के शरीर में या मस्तिष्क में झटते लग सकते है। कभी कभी शरीर कांपने लगता है लेकिन साधक को इस स्थिति से डरना नहीं चाहिए। कभी कभी शरीर में दर्द होगा और चला जाएगा, इसको भी दृष्टा भाव से देखते रहना क्योंकि यह भी अपना काम करके चला जाएगा, ध्यान में डटे रहना । यह कुंडलनी जागरण के चिह्न हैं, शरीर में विद्युत तेजी से चलती है । फिर धीरे धीरे अलौकिक अनुभव होने लगते है । शरीर तथा आत्मा आनंद से भरपूर हो जाती हैं । यहाँ साधक को चाहिए कि अपना कर्ता भाव पूर्ण रूप से छोडकर बस देखता रहे जैसे कोई नाटक देखता है

अब ऊर्जा उर्द्धगामी हो जाती है । यदि आपका तीसरा नेत्र अर्थात शिवनेत्र नहीं खुला है तो चिंता नहीं करना क्योंकि परमात्मा प्राप्ति की यात्रा के लिए यह जरूरी भी नहीं है । उच्चस्थिति आने पर यह स्वत: ही खुल जाता है। समय से पूर्व शक्ति का खुल जाना भी हानिप्रद हो सकता है। अब यह समझिए कि बीज अंकुरित हो चुका है अत: साधना में धैर्य रखते चलना, यह धैर्य ही ध्यान समाधि के रास्ते में खाद का कार्य करता है। अध्यात्म के अनुभवों का बुद्धि के आधार पर विश्लेषण न करना । क्योंकि ध्यान में तरक्की कुछ इस ढंग से होती रहती है जैसे मिट्टी में दबा बीज अंकुरित होता रहता है लेकिन अंकुरण की तरक्की का पता जब चलता है जब वह धरती की सतह से ऊपर आ जाता है । इस प्रकार धीरे धीरे साधक ध्याताध्यान द्वारा ध्येय में पूर्णरूपेण लय हो जाता है और उसमें द्वैतभाव नहीं रहता है ऐसी अवस्था में समाधि लगती है । समाधि प्राप्त साधक दिव्य ज्योति एवं अद्भुद ताकत से पूर्ण हो जाता है । समाधि प्राप्त साधक सभी जीवों में प्रभु का वास देखने लगता है ।समाधि घटित होने से साधक को मोक्ष मार्ग की यात्रा की और बढ़ते हुए विभिन्न सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ भी प्राप्त हो जाती है लेकिन साधक को परम मोक्ष प्राप्ति के लिए इनके प्रयोग से बचना चाहिए अन्यथा यात्रा और कठिन हो जाती है ।

ये सिद्धियाँ तथा रिद्धियाँ इस प्रकार है-

अणिमा

लघिमा

गरिमा

प्राप्ति

प्राकाम्य

ईशित्व

महिमा

सर्व कामना सादिका

वाशित्व

दुरश्रवण

सर्वज्ञता

वाक्य सिद्धि

परकाया प्रवेश

कल्पवृक्ष

संहारशक्ति

सृष्टि शक्ति

सर्वाग्रगण्यता

अमरत्व

समाधि लगने पर साधक बिना आँखों के देख सकता है, बिना कानों के सुन सकता है, बिना मन मस्तिष्क के बोध कर सकता है, जन्म मरण से मुक्त स्थूल देह से बाहर निकल कर खुद को अभिव्यक्त कर सकता है, ब्रह्मांड से भी अलग होने की ताकत प्राप्त कर लेता है।

ध्यान तथा समाधि में एक महत्वपूर्ण अंतर है कि साधक जब ध्यान कर रहा होता है तो उसको यह पूरा अहसास रहता है कि वह ध्याता है तथा ध्येय का ध्यान कर रहा है अर्थात यहाँ पर द्वैत भावना रही । लेकिन जब साधक का चित्त पूर्ण रूप से ध्येय में परिवर्तित होने लगता है और स्वयं के अस्तित्व का अभाव हो जाता है अर्थात यहाँ केवल ध्येय ही शेष रह जाता है, यहाँ पर अद्वैत ही शेष रह जाता है ।

समाधि के प्रकार

योग के अनुसार समाधि के दो प्रकार बताए जाते हैं

(क) संप्रज्ञात समाधि

इस प्रकार की समाधि में साधक वैराग्य द्वारा अपने अंदर से सभी नकारात्मक विचार, दोष, लोभ, द्वेष, इच्छा आदि निकाल देता है।इस समाधि में आनंद तथा अस्मितानुगत की स्थिति हुआ करती है ।

(ख) असंप्रज्ञात समाधि

इस प्रकार की समाधि में साधक को अपना भी भान नहीं रहता और वह केवल प्रभु के ध्यान में एकरत तल्लीन हो जाता है ।

संप्रज्ञात समाधि को भी चार भागों में बताया गया है

(अ) वितर्कानुगत समाधि: विभिन्न देवी देवताओं की मूर्ति का ध्यान करते करते समाधिस्थ हो जाना ।

(आ) विचारानुगत समाधि: स्थूल पदार्थो पर ध्यान टिका कर विचारों के साथ समाधिस्थ हो जाना ।

(इ) आनंदानुगत समाधि: विचार शून्य होकर आनंदित हो कर समाधिस्थ हो जाना ।

(ई) अस्मितानुगत समाधि: इस समाधि में अहंकार, आनंद भी समाप्त हो जाता है ।

अवस्थाओं के आधार पर समाधि को दो भागों में बांटा जा सकता है

सविकल्प समाधि : यह समाधि की शुरुआत है, इसमे ध्येय, ध्याता एवं ध्यान तीनों ही होते हैं। यह समाधि द्वैत भाव युक्त है, इसमें साधक का अस्तित्व भी विद्यमान रहता है। इसको इस प्रकार से समझ सकते हैं जैसे लोहे का कोई बर्तन बनाया तो बर्तन में लोहे की भी अभिव्यक्ति मौजूद रहती है। समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी न किसी सहारे की आवश्यकता होती है। चित्त एकाग्र होने पर ही यह समाधि घटित होती है। ऐसी अवस्था में प्रज्ञा के संस्कार बाकी रह जाते हैं ।

निर्विकल्प समाधि : जब साधक ( ध्याता ) ध्यान करते करते ध्येय में इस प्रकार समाहित हो जाता है कि उसका अपना अस्तित्व समाप्त हो जाता है तथा केवल ध्येय ही शेष रह जाता है अर्थात अद्वैत अवस्था को प्राप्त कर लेता है तो इसे निर्विकल्प समाधि कहते हैं। समाधि की इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए साधक को किसी भी प्रकार के सहारे की आवश्यकता नहीं होती है। इस समाधि के उपरांत सभी दुखों की निवृत्ति होकर पूर्ण सुख की प्राप्ति हो जाती है।

उपरोक्त दोनों अवस्थाएँ समाधि की शुरुआती तथा आखरी अवस्थाएँ हैं।
समाधि को प्राप्त करने के विभिन्न साधनों के आधार पर समाधि के कई प्रकार हैं।
जैसे:

ध्यान योग समाधि : समाधि की यह आरंभिक स्थिति है। ध्यान पक्का होने पर ही समाधि लगती है अत: साधक ध्येय का ध्यान कर ध्यान की सिद्धि प्राप्त करता है। ध्यान की सिद्धि के लिए साधक का मन पवित्र तथा पाप रहित रहना चाहिए ।

घेरण्ड संहिता में उल्लखित है कि:

शांभावी मुद्रा द्वारा आत्मा को साक्षात करें और बिन्दु समान ब्रह्म का साक्षात्कार करें । उसके बाद मस्तिष्क में मौजूद ब्रह्म में आत्मा का प्रवेश कराएं।

अब आत्मा को आकाश में लय कर दें, अब आत्मा को परमात्मा के मार्ग की और प्रवेश कराये इससे साधक हमेशा के आनंद तथा समाधि को प्राप्त कर लेता है ।

नाद योग समाधि :साधक इस प्रकार की समाधि में अपने मन को पूर्णरुपेण अनाहत नाद में लगा देता है । इससे निःशब्द समाधि की प्राप्ति होती है ।इसमें मन नाद रूपी निःअक्षर शक्ति में समाने लगता है । इसको महाबोध समाधि भी कहते हैं ।

मंत्र योग समाधि: इसमें साधक अपने मन को श्वास प्रश्वास की क्रिया में लय करता है । श्वास लेते तथा छोड़ते हुए उत्पन्न आवाज पर साधक ध्यान रखता है और एकाग्रचित होकर समाधिस्थ हो जाता है । अभ्यास पक्का हो जाने पर श्वास उलट जाती हैं । इसी उल्टे जाप का उच्चारण महाऋषि बाल्मीकि जी ने किया था ।

लय योग समाधि : हमारे शरीर में कुंडलनी सुषमना नाड़ी का रास्ता बंद कर साढ़े तीन चक्कर ( कुण्डल ) मार कर सुषुप्त अवस्था में पड़ी रहती है । कुंडलनी को शक्ति का द्योतक माना जाता है । ध्यान साधना द्वारा समाधि की स्थिति को प्राप्त करने के लिए कुंडलनी को जाग्रत करते हुए छह चक्रों को भेदना होता है ।इसमे साधक को ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे उसमे परमात्मा की शक्ति लय होती जा रही है । इसे महालय समाधि भी कहा जाता है ।

भक्ति योग समाधि : जब साधक अपने मन को अपने इष्ट में इस प्रकार समा देता है कि उस अपने शरीर का भी भान नही रहता है ।वह बाहरी सभी प्रकरणों से अपने आप को संज्ञाशून्य समझने लगता है ।शरीर प्रसन्नता से भर जाता है आनंद में आँसू निकालने लगते है तो इसे भक्ति योग समाधि कहा जाता है । इससे मन में एकाग्रता आ जाती तथा ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है ।

राज योग समाधि : मन को बाहरी सभी प्रपंचों से हटाकर आत्मा में तथा आत्मा को परमात्मा में लगा देना ही राज योग समाधि है ।इसमे साधक की प्राथमिकता यही रहती है कि मन की सभी वृत्तियों को रोककर प्रभु में लगा दिया जाये।

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