आध्यात्मिक ज्ञान

ज्ञान क्या है? ज्ञान है बाहरी विषयों का आत्मसात। यह व्यक्ति को स्थूलता से सूक्ष्मता की ओर ले जाता है। ज्ञान का आधार क्या है? जहां ज्ञान भौतिक है, वहां इसका आधार मन है। जहां यह पूरी तरह से आध्यात्मिक है, वहां उसका आधार आत्मा है। ज्ञान मन को आत्मा के साथ संयुक्त करता है। यह ज्ञान की अपने आप में एक बड़ी विशेषता है। जो मन को आत्मा के साथ नहीं मिलाता, वह ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है। इसी कारण तथाकथित ज्ञान से मन में अहंकार पैदा होता है। यदि तुम एक अहंकारी व्यक्ति को देखते हो, तो तुम्हें अवश्य समझना चाहिए कि इस व्यक्ति को ज्ञान नहीं, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है। एक बार दो बड़े पंडितों में बहस छिड़ी, 'पहले कड़क सुनाई देती है या पहले बिजली गिरती है। यह वाद-विवाद महीनों चलता रहा, किंतु किसी निर्णय पर नहीं पहुंचा जा सका। तब उन लोगों ने निश्चय किया कि इसे एक रात किसी पेड़ के नीचे बैठ कर ही देखा जाए। अगली सुबह पाया गया कि माथे पर बिजली गिरने के कारण दोनों वहीं पेड़ के नीचे मरे पड़े हैं। अत: यह तथाकथित ज्ञान बिल्कुल ज्ञान नहीं है, बल्कि ज्ञान की भ्रांति है, जो तुम निश्चय ही अर्जित करना नहीं चाहोगे। कौरवों और पांडवों के बीच युद्ध के समय कौरवों को युद्ध का परिणाम समझाने की बहुत चेष्टा कि गई। यहां तक कि युधिष्ठिर ने उन लोगों की सोच में परिवर्तन लाने के लिए भगवान से भी प्रार्थना की। उन पर कृष्ण अनुकंपा भी थी, किंतु जड़ भाव होने के कारण वे इसको समझ नहीं सके। हां, अर्जुन के गांडीव की टंकार से वे आसानी से समझ सकते थे। इसलिए एककोशीय मन भौतिक शासन से ही शासित होता है, अन्य से नहीं। सांसारिक ज्ञान अपने प्रथम स्तर में भौतिक-मानसिक होता है और इसके बाद मानसिक। जब इस ज्ञान को भौतिक जगत में कार्यान्वित किया जाता है, तब यह मानसिक भौतिक होता है। इस भौतिक मानसिक ज्ञान का इस भौतिक जगत में कोई ज्यादा महत्व नहीं है। किंतु इसका मूल्य बदलता रहता है। जो सिध्दांत आज पसंद किया जाता है, वह कल बदल सकता है। तब यथार्थ ज्ञान क्या है? यथार्थ ज्ञान उस सत्ता का ज्ञान है, जिसमें देश, काल और व्यक्ति में परिवर्तन से भी कोई परिवर्तन नहीं होता। इस जगत में सभी कुछ सकारण है अर्थात् कार्य कारण का परिणाम होता है और कारण का परिणाम कार्य होता है। यह इसी तरह चलता रहा है। एक स्तर पर कार्य दूसरे स्तर पर कारण बन जाता है। जहां कार्य-कारण तत्व काम करता है, वहां अपूर्णता रहती है। इस ज्ञान से अथवा इस ज्ञान के आने वाले स्रोतों पर कोई अहंकार नहीं कर सकता। वेदों में कहा गया है, 'मैं न यह कहता हूं कि मैं नहीं जानता और न यह कहता हूं कि मैं जानता हूं, क्योंकि वह परम सत्ता सिर्फ उसी के द्वारा जाना जाता है जो जानता है कि परमात्मा जानने और नहीं जानने के परे है।' इसलिए यह जानना भी एक विशेष मानसिक स्थिति है, जो देश, काल और व्यक्ति के परे है।

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